मैं पिछले दस वर्षों से दिल्ली-एनसीआर में रह रही हूँ | यहाँ रहते-रहते बड़े शहर के तौर-तरीके, पहना-ओढ़ना, बोलना-चलना कब ज़हन में उतर गया पता ही नहीं चला | यहाँ पर रहने के बाद जब कभी हम अपने शहर मथुरा जाते तो लगता कि अब हम बहुत मोर्डर्न और ओपन-माइंडेड हो गए हैं | फैशन के कपडे, घूमना-फिरना, ज्यादा किसी पर ध्यान न देना, जिन लोगों से पहले खूब हंस कर बात करते थे, उन्हें देखकर कतराना, कम बोलना, शायद बड़े शहरों का यही स्वाभाव “खुले विचार” कहलाता है ? पर क्या सच माईने में हमारे विचार खुले हुए हैं ?
मैंने अपने आप को बहुत परखा तो जाना की मैं तो बहुत ही बंद विचारों की महिला हूँ | यह बात मुझे एक छोटे से इंसिडेंट के बाद मालूम हुई |
ग़ज़िआबाद मैं मेरे घर के पास ही एक मंदिर है, जिसमे मैं पहले लगभग रोज़ सुब्हे या शाम को दर्शन करने जाती थी | उस मंदिर मैं करीब अस्सी-पिच्यासी वर्ष के वृद्ध रहते थे | वह पंडित तो नहीं थे परन्तु, मंदिर का थोड़ा बहुत काम करते रहते थे | संध्या आरती के समय वह मंजीरा बजाया करते थे | उनकी उम्र को देखते मेरे मन में उनके प्रति काफी आदर और सम्मान था | लेकिन ऐसा लगता था की मंदिर के बाकी लोग उनको आदर-सम्मान नहीं देते और उन्हें बोझा सा समझते हैं | यह देखकर मुझे उस वृद्ध के लिए और भी सम्मान या फिर दया (पता नहीं) आती थी | खैर ! “हमारे देश मैं वृद्धों का हाल” , ये मेरे इस लेख का विषय नहीं है, पर हाँ, यह वृद्ध मेरे इस लेख में अकेला किरदार है | करीब डेड-दो वर्षो तक मैं लगातार मंदिर जाती, और भगवान और बाकी मंदिर के लोगों को नमन करके आती | लेकिन घर के प्रति बढ़ती ज़िम्मेदारियाँ होने के कारण मंदिर जाना कम होता गया और अंत में बंद हो गया |
एक दिन घर का कुछ सामन लाने के लिए मुझे पास के बाजार में जाना पड़ा | रास्ते में मैंने देखा की दूर से वही मन्दिर वाले वृद्ध आ रहे हैं | मैं भी उन्हें पहचान गयी और शायद वह भी मुझे पहचान गए थे | जहाँ मैं रोज़ उन्हें झुक कर प्रणाम करती थी, आज मैं सोच रही थी की क्या करूँ ? नमस्ते करूँ या नहीं ? और यही सोचते-सोचते वो मेरे करीब से निकल गए | झुकना तो छोड़ो मैंने उन्हें देखकर हँसने की भी ज़हमत नहीं उठाई | किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा और सब कुछ वैसे ही चलता गया | फिर कुछ महीनो बाद मैं अपने पीहर मथुरा गयी | अपने पिता के साथ मैं स्कूटर पर कही जा रही थी | उस छोटे से रास्ते में मेरे पिता ४-५ बार झुके और कुछ लोगों को अभिवादन किया | उस दिन मुझे ये एहसास हुआ की खुले- विचारों का सही मतलब क्या है | एक दुसरे के प्रति आदर-सम्मान, हंसना-बोलना, समय पर अपने किसी की मदद करना और अपने विचारों को सही समय पर प्रकट करना, शायद यही हैं “खुले-विचार” |
एक तरफ तो हम अपने आप को मोर्डर्न कहते हैं और वहीं किसी जानकार को देखकर हँसने में भी सोचते हैं | अगर हम “खुले-विचारों” का सही मतलब जानकार उस पर अमल करें तो ये समाज बहुत ही खुश मिज़ाज़ हो जाएगा और बड़ो शहरों मैं जो अकेलापन हैं वो भी शायद दूर हो जाएगा |
Note: The image used over here is taken from internet.